Saturday 13 June 2020

फिल्म समीक्षा, गुलाबो सिताबो

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उम्मीदों का बोझ बहुत भारी होता है | और जब आपने विकी डोनर,पिंक,पिकू,मद्रास कैफे जैसी उम्दा फिल्में देखी हों तो शुजीत सरकार जैसे मंझे हुए निर्देशक से ऐसी उम्मीदें बेमानी भी नहीं हैं | सोने पर सुहागा ये कि इन उम्मीदों के खेवनहार,महानायक अमिताभ और वर्तमान हिंदी सिनेमा के बेहतरीन अभिनेताओं में से एक आयुष्मान खुराना हों तो लॉक डाउन में उम्मीदें और बढ़ जाती हैं | पर अफ़सोस गुलाबो सिताबो उन उम्मीदों पर खरा नहीं उतरती जिसका लोग बेसब्री से इन्तजार कर रहे थे |
एक बेहद लिच्चड़ मकान मालिक,मिर्जा का किरदार शायद अमिताभ से अच्छा कोई नहीं निभा सकता था | बांके के किरदार के साथ आयुष्मान ने पुरी तरह न्याय किया है | बेगम का किरदार निभाते हुए फ़ारुख़ जफ्फार,जोहरा सहगल की याद दिलाती हैं | हालाँकि जफ्फार ने लगभग ऐसा ही किरदार 2019 में नवाजुद्दीन की रीलीज हुई फिल्म फोटोग्राफर में निभाया था | बृजेन्द्र काला उर्फ़ क्रिस्टोफर और विजय राज उर्फ़ ज्ञानेश भी अपने किरदारों में जमे हैं | पर इन सबके बावजूद समस्या ये है कि फिल्म बहुत धीमी गति से रेंगती है | बिलकुल अभिषेक बच्चन के करियर की तरह ( हालाँकि वो तो अब लगभग समाप्त ही हो चुका है | ) फिल्म का पहला भाग तो खंडहर हवेली के किराएदारों के रोजमर्रा की आम जिंदगी सा नीरस लगता है | बस बीच बीच में मिर्जा अपनी लिच्चड़पन से फिल्म को थोड़ा बचाते हैं |


                 शूजित सरकार की पिछली सारी फिल्में विषय केंद्रित थीं | सशक्त कहानी शुरू से अंत तक आपको बांधे हुए रखती थीं | पर गुलाबी सिताबो ऐसी नहीं है | मकान मालिक और किराएदार के बीच नोकझोंक पर बनी फिल्म में किसी को तब तक कोई दिलचस्पी नहीं हो सकती है जब तक कि उसमें कुछ ऐसा न हो जो दर्शकों को बाँध सके | दूसरी बात यह समझ से परे है कि इस फिल्म का नाम गुलाबो सिताबो क्यों रखा गया ? थोड़े बहुत समकालीन विषयों जैसे,पुरानी इमारतों पर गिद्ध दृष्टि लगाए बिल्डर,सरकारी नौकरी पाने के लिए एक लड़की के किसी भी हद तक जाने के ताने बाने को समेटे शुजीत सरकार चूक जाते हैं | गाने ऐसे हैं जो समझ नहीं आते | पुरी फिल्म में सिर्फ एक सरप्राइज पैकेज को छोड़कर ( जब 95 साल की बेगम,मिर्जा को छोड़कर रातों रात अपने पुराने प्रेमी के पास चली जाती हैं ) के अलावा आगे क्या होने वाला है लगभग पता होता है |

         फिल्म का दूसरा भाग थोड़ा तेजी से चलता है | मिर्जा अपनी बेगम के मरने का इंतजार करते हवेली अपने नाम करवाने के लिए बहुत तिकड़में अपनाते हैं और दूसरी तरफ बांके एक मजबूर लेकिन ढीढ किराएदार की तरह हवेली में जमे रहने के लिए तमाम जद्दोजेहद करते दिखते हैं | अपनी पिछली फिल्मों की तरह शुजीत ने महिला कलाकारों को पूरा मौका दिया है | कुछ दूसरे निर्देशक इनसे सीख सकते हैं कि फिल्म में महिलाऐं सिर्फ बदन दिखाने,आइटम सांग या शो पीस के लिए नहीं होती हैं |
                                            बहरहाल इस फिल्म से निर्माता निर्देशक को कोई फायदा हो न हो लेकिन भाई भतीजावाद से भरे बॉलीवुड में अगर कोई कला का सही पारखी हो तो उसकी नजर गुड्डो का किरदार निभाने वाली सृष्टि श्रीवास्तव पर जरूर पड़ेगी | अमिताभ जैसे दिग्गज अभिनेता के सामने आँखों में आँखे डालकर संवाद करना इस लड़की के सुनहरे भविष्य की तस्वीर पेश करता है |
                             खैर जिस तरह,मिर्जा,अपनी बेगम के मरने का इंतजार करते और बांके,मिर्जा के मरने का इंतजार करते हुए बहुत धैर्य से करीब पौने दो घंटे निकाल देते हैं वैसे ही आपको पूरी फिल्म एक बार में देखने के लिए काफी धैर्य चाहिए | अच्छी बात ये है कि आपके पास धैर्य तोड़ने का विकल्प है क्योंकि आप फिल्म मोबाइल पर देख रहे मल्टीप्लेक्स में नहीं | अगर रेटिंग की बात की जाय तो इसे पांच में से ढाई |
पुनश्चः
फिल्म उस वक्त ओटीटी प्लेटफार्म पर रिलीज़ हुई है जब देश भर में लाखों लोग अपनी नौकरी गंवाने के बाद किराया चुकाने में भी असमर्थ हो गए हैं | सभी किराएदार बांके की तरह ढीढ नहीं होते और न ही सभी मकान मालिक मिर्जा की तरह लिच्चड़ लेकिन मजबूर | और हाँ फौजिया जैसी लड़कियों की कमी नहीं है जो शादी करने के लिए लड़के का दिल नहीं बल्कि पॉकेट देखती हैं | 

2 comments:

  1. अजय ब्रह्मात्मज की याद आ गयी।

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  2. ओह इतना बड़ा सम्मान

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