Friday 22 February 2019

नामवर सिंह - स्मृति शेष

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"हज़ारों साल नर्गिस अपनी बेनूरी पे रोती है

बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा |" 

नामवर जी का हिंदी आलोचना,और साहित्य में क्या योगदान रहा है इस पर हिंदी के तमाम विद्वान उन्हें याद करते हुए श्रद्धांजलि दे रहे हैं |
मैं सिर्फ नामवर जी से अपनी मुलाकातों को इस ब्लॉग के जरिये आप सबसे साझा कर रहा हूँ |
                                                              अरे ये चेहरा तो बिलकुल जाना पहचाना लग सा रहा है,सर अगर मैं गलत नहीं हूँ तो आप शायद नामवर सिंह हैं ? सामने बैठे शख्स ने नजरें उठाई और हल्की मुस्कान बिखेरते हुए कहा,हम्म्म | सर अख़बारों,पत्रिकाओं में आपके लेख और आलोचनाएं पढ़ता रहता हूँ,अच्छा |
हमने करीब 3,4 मिनट बातचीत की | उस समय मैं एक छोटी डायरी लेकर चला करता था,जो मैंने उनके सामने बढ़ा दी,सर ऑटोग्राफ,अरे मेरा ऑटोग्राफ क्या लोगे ? मैं कोई सेलेब्रिटी हूँ ? सर मेरे लिए तो आप हैं,फिर उन्होंने मुझे ऑटोग्राफ दिया जो मेरे अब तक के जीवन का पहला और अंतिम ऑटोग्राफ है |
                                                              यह वाकया है वर्ष 2005 का जब मैं पहली बार घर से कुछ दिनों के लिए दिल्ली आया था,और एक मित्र के साथ रोजाना साहित्य अकादमी की लाइब्रेरी जाया करता था,वहीं मुझे पहली बार हिंदी आलोचना के शिखर पुरुष नामवर जी से मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था |
                                                                    वक्त का कारवां यूँ ही चलता रहा,जीवन की आपाधापी में समय गुजरता रहा | नामवर जी से दोबारा मिलने का मौका मुझे एक प्रोफेसर साहिबा के द्वारा मिला | बात मई 2016 की है,जब प्रोफेसर साहिबा ने मुझसे कि क्या तुम नामवर जी से मिलने जाना पसंद करोगे ? मैंने बिना सोचे हामी भर दी | रास्ते भर मैं सोचता रहा कि एक 90 साल के वयोवृद्ध साहित्यकार से क्या बातें हो सकती हैं,उन्हें कुछ याद भी होगा ? क्या वो बोल पाते होंगे,वगैरह वगैरह | खैर इन्हीं विचारों के साथ हम नामवर जी के कालिंदी कुंज वाले फ्लैट पर पहुंचे |
              हमें इस बात की कतई उम्मीद नहीं थी कि दरवाजा स्वयं नामवर जी खोलेंगे | लेकिन हमारे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा जब मुँह में पान की गिलौरी दबाए,हल्की सी मुस्कान लिए दरवाजे पर स्वयं नामवर जी थे,आइए | हम दोनों ने हिंदी साहित्य के उस पुरोधा के पाँव छूए,बैठिये मैं जरा पान लेकर आता हूँ  |                                                                                           बिस्तर,अलमीरा,सोफा जिधर नजर जा रही थी हर तरफ किताबें | उन किताबों पर नजर दौड़ाते हुए मैं सोच रहा था कि अगर नामवर जी,विधायक,सांसद या प्रशासनिक अधिकारी होकर सेवानिवृत जीवन जी रहे होते तब भी क्या उनके व्यक्तित्व में इतनी ही सादगी होती ?  आपलोग चाय लेंगे ? नहीं सर बस आप बैठिए ना | फिर उनसे बातों का सिलसिला शुरू हुआ | साहित्य,समाज,समकालीन राजनीति तमाम मुद्दों पर हमें उनके विचार जानने का सौभाग्य प्राप्त हुआ | वो बहुत स्थिर से धीरे-धीरे बात कर रहे थे और सबसे बड़ी बात इतनी उम्र के बावजूद उन्हें देश-दुनिया के तमाम ताजा हालातों की पुख्ता जानकारी थी | प्रोफेसर साहिबा उन्हें अपने द्वारा संपादित कुछ किताबें और लेख वगैरह दिखा रही थीं और नामवर जी बड़ी पैनी नजरों से उनकी आलोचनात्मक त्रुटियाँ बता रहे थे |
                      सर हम चाहते हैं कि आपका 90 वां जन्म दिन मनाएं,प्रोफेसर साहिबा ने नामवर जी से मुखातिब होते हुए कहा | अरे अब क्या जन्म दिन,आजकल बाहर निकलना नहीं के बराबर होता है,कुछ उम्र संबंधी समस्याएं भी हैं,बस अब तो कभी भी ऊपर से बुलावा आ सकता है | अरे नहीं सर अभी तो आप बिलकुल फिट हैं,अभी क्या हुआ है | प्रोफेसर साहिबा उनसे बातें कर रही थीं |
                                              जेठ की दुपहरी में एक शानदार मुलाकात के बाद हमने उनसे विदा लिया | उसके बाद 2017 के विश्व पुस्तक मेले में नामवर जी को देखा था | 19 फरवरी को जब उनके निधन का समाचार सुना तो मेरे जेहन में एक बात कौंधी कि गर नामवर सिंह 1959 में चंदौली का चुनाव जीत जाते तो वे बतौर जनप्रतिनिधि कैसे होते ये तो पता नहीं लेकिन हिंदी साहित्य को ऐसा नामवर ना मिलता | ॐ शांति 

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