Thursday 31 August 2017

राम रहीम जैसे बाबाओं को समाज में स्थापित कौन कर रहा है ?

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38 मौतें,सैकड़ों घायल,करोड़ों की संपत्ति का नुकसान,आम जन को भारी परेशानी,21 वीं सदी के आधुनिकता की बयार में बह रहे देश की विदेशों में थू-थू,सरकार की फजीहत,न्यायपालिका का चाबुक और अंततः कुकर्मी बाबा को जेल | यह सारा घटनाक्रम महज 3 दिनों के अंदर हुआ | इससे पहले भी बहुत से बाबाओं की पोल खुली थी और उसमें जानें गईं थीं | और ऐसा भी नहीं है कि ऐसे बाबाओं के कारनामों के पर्दाफाश की यह अंतिम फिल्म थी,आगे भी इनकी फ़िल्मी दास्ताँ देश के सामने आएंगी | लेकिन सवाल उठता है कि एक ऐसा देश जो आधुनिकता की दहलीज पर दस्तक दे रहा हो,सूचना प्राद्यौगिकी में विश्व की अगुवाई कर रहा हो,एक ऐसे देश में जहाँ हिन्दुओं की बहुदेव वादी प्रथा में 33 करोड़ देवी देवता हैं,मुसलमानों और ईसाईयों के एकेश्वरवाद में पैगम्बर और ईसा हैं ऐसे बाबाओं का उदय कैसे हो गया हुआ ? 
                        यह तो सर्वविदित है कि राजनीतिक दलों का अंतिम लक्ष्य सत्ता की प्राप्ति होती है,वो अपने हिसाब से चुनावी गुणा गणित के लिए ऐसे बाबाओं का समर्थन लेते हैं और लेते रहेंगे | लेकिन मेरे विचार से ऐसे बाबाओं के उदय में जिसने सबसे ज्यादा योगदान दिया वो है हमारा मीडिया | ऐसा देश जो अभी-अभी घोर गरीबी और भुखमरी की दहलीज से बाहर निकला हो उसके पास मनोरंजन के बहुत न्यूनतम साधन हैं,जिसमें सबसे मुख्य टीवी है | 80 के दशक में जब भारत में टेलीविज़न आया लगभग उसी समय रामायण और महाभारत का प्रसारण भी हुआ जिसके पात्रों को लोग भगवान की तरह पूजने लगे | धीरे--धीरे ऐसे धारावाहिकों की जगह भूत प्रेत और सास बहु की साजिश जैसे सीरियलों ने ले ली | इसी के साथ-साथ निजी समाचार चैनलों ने दस्तक दी जैसे-जैसे समाचार चैनलों की भीड़ बढ़ती गई उनके बीच टीआरपी के अंधी दौड़ शुरू हुई |
                                                                        हर कीमत पर खुद को नंबर वन दिखाने की होड़ | इसी के सामानांतर ऐसे बाबा जो अपनी कुटिया तक सीमित थे चैनलों ने उन्हें और उनके ऐसे करतबों को दिखाना शुरू किया जिसने जनता के खासकर गरीब और बेरोजगार जनता के दिलो दिमाग पर गहरी छाप छोड़ी |फिर जब भीड़ जुटनी शुरू हुई तो बाबाओं ने धर्म और विश्वास की अच्छी पैकजिंग कर अपनी मार्केटिंग शुरू की |मीडिया ने ऐसे बाबाओं को घर-घर पहुँचाया और बाबाओं ने गरीबों के चढ़ावे से मीडिया की झोली भरी |
                                                         एक समय जब ये चैनल,भूत,प्रेत सांप बिच्छू अंधविश्वास को अपने प्राइम टाइम में प्रमुखता से दिखाने पर लोगों के निशाने पर आए तो इन्होने यह कहकर अपना बचाव किया कि भारतीय मीडिया अभी शैशवावस्था में है और उसे परिपक्व होने में थोड़ा समय लगेगा | समय के साथ साथ ये परिपक्व तो हुए लेकिन इस परिपक्वता के साथ साथ इन्होंने समाज में ऐसे बाबाओं को स्थापित कर दिया दिया जो एक प्रगतिशील और आधुनिक समाज के लिए स्वयं सबसे बड़ा खतरा थे |
                                                                     जरा याद कीजिये इंदिरा गाँधी के ज़माने में तांत्रिक धीरेन्द्र ब्रह्मचारी बहुत शक्तिशाली थे,फिर नरसिम्हा राव के समय चंद्रास्वामी भी उभरे लेकिन इनके आभामंडल से कुछ एक राजनीतिक वर्ग ही प्रभावित हुआ आम लोग नहीं,जरा फर्ज कीजिये अगर उस वक्त ये टीआरपी प्रेमी चैनल होते तो ऐसे बाबाओं का साम्राज्य और प्रभाव कितना विशाल होता | जो बाबा के कट्टर भक्त थे उनकी श्रद्धा अब भी नहीं डिगी है,जो उसके आलोचक थे वो भी उसी तरह हैं,अगर बाबा को लेकर किसी का नजरिया बदला है तो वो है मीडिया | हमारे टीवी चैनल अपनी सुविधा और फायदे के हिसाब से खुद को मोड़ लेते हैं जब जैसी बयार चली वो उसी दिशा में बह गए | वही मीडिया जो कल तक ऐसे बाबाओं की खबरें दिखाकर,उसके प्रवचनों,फिल्मों को दिखाकर अपनी टीआरपी बढ़ाने में व्यस्त था ने अब सीधे-सीधे 360 डिग्री का यू टर्न मारा है |आज जो चैनल अपने प्राइम टाइम में बाबा के काले कारनामों की पोल खोल रहे उसने कभी इन बाबाओं की सच्चाई जानने या उसपर तथ्यपरक,खोजपरक खबरें दिखाने की जहमत क्यों नहीं उठाई |
                                                                1972 को अमरीकी पत्रकारिता के इतिहास में एक मील का पत्थर वर्ष कहा जा सकता है क्योंकि इसी साल वाशिंगटन पोस्ट और न्यूयार्क टाइम्स के 3 साहसी पत्रकारों ने प्रसिद्ध वाटरगेट कांड का पर्दाफाश किया था जिसे लेकर अंततः रिचर्ड निक्सन को राष्ट्रपति पद छोड़ना पड़ा था | हमारे यहाँ के चैनलों में से किसी ने भी आज तक ऐसी पत्रकारिता के लिए नजीर नहीं पेश की जो समाज और सत्ता में उथल पुथल मचा दे |
    जब बच्चा शैशवावस्था में होता है तो उस वक्त उसे जो चीजें सिखाई जाती हैं आगे वह उसी का अनुकरण करता है | लोकतंत्र के बाकी तीन स्तंभ परिपक्व हो चुके हैं उन्हें बदलना या उनसे जिम्मेदारी भरे भाव की अपेक्षा करना खुद को भुलावे में रखना है | ( अपवादों को छोड़ दें ) लेकिन यह शिशु रूपी चौथा स्तंभ अभी भी समाज को बहुत कुछ दे सकता है | 

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