Friday 20 January 2017

सलमान,संजय दत्त,अदालत और आम इंसान

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जिनके पास सबूत नहीं होते क्या वो बेकसूर नहीं होते जज साहब ? यह हिंदी सिनेमा का महज एक डायलॉग है लेकिन इसके पीछे एक बेबस,लाचार आम आदमी की हमारी न्यायिक व्यवस्था से गुहार और उसकी चीत्कार भी है | बहरहाल 18 साल तक एक मुकदमा चला,सैकड़ों गवाह पेश हुए,तारीख दर तारीख कार्यवाही चलती रही और इस मुकदमें का फैसला जज साहब ने 7 मिनट में सुनाकर सलमान को सबूतों के अभाव में बरी कर दिया | तो क्या कोई यह उम्मीद पाले बैठा था कि सुल्तान,माई लार्ड की नजरों में दोषी ठहराए जाएंगे और अदालत से सीधे जेल जाएंगे ? और उन काले हिरणों की आत्मा को शांति मिलेगी | यह ना तो होना था और न हुआ | हमारे देश में कोई अदालती आदेश पर टिप्पणी नहीं करता क्योंकि ऐसा करने से न्याय की देवी रुष्ट हो जाती हैं और फिर टिप्पणी करने वाले पर अवमानना नामक कानून का कहर टूटता है |(मैं भी यहाँ किसी अदालती आदेश पर टिका टिप्पणी नहीं कर रहा और ना मेरा इरादा इसकी अवमानना करने का है | ) लेकिन ऐसा ना होने का अंतहीन सिलसिला कबतक चलता रहेगा ? जिनपर सबूत जुटाने की जिम्मेदारी थी वो तक़रीबन दो दशक तक क्या करते रहे ?
            चलिए यहाँ तो बात एक जानवर की थी जो गलती से एक नादान इंसान के हाथों मारा गया | फर्ज कीजिये अगर उन काले हिरणों की जगह कोई इंसान भी होता तो भी क्या अदालती फैसला यही आता | बिलकुल यही आता | हां फैसले के बदलने की गुंजाइश तब होती जब पीड़ित भी दबंग की तरह एक टाईगर होता |
                                                क्या हमारी न्यायिक व्यवस्था यह मानती है कि बड़े लोग निहायत ही मासूम होते हैं | अगर ऐसा नहीं है तो फिर क्यों इन बड़े लोगों से जो पैदा तो इसी मिटटी में होते हैं लेकिन यहाँ के नियम कायदे कानून से बिलकुल अंजान | कभी उनके हाथ से बंदूक अपने आप चल जाती है,कभी उनके पास गलती से कोई AK47 रख देता है | तो कभी उनकी कार की नीचे गरीब गुरबे खुद आकर मुक्ति पाने की कोशिश करने लगते हैं और फिर बेवजह उन बड़े लोगों को अपना बहुमूल्य वक्त जिसका मूल्य अक्सर इंसानी जान से ज्यादा होता है,सर्दी गर्मी बरसात में न्याय के कटघरे में खड़े होकर जाया करना पड़ता है | और ऐसा तमाशा हम सलमान के हिट एंड रन केस में देख भी चुके हैं जिसमें सलमान को पांच मिनट में बेल मिल गई,ये अलग बात है कि इस पांच मिनट की कीमत करोड़ों में थी,जिसको देने की औकात सलमान जैसे लोगों में ही हो सकती है | (इसमें गलती राज्य सरकार की भी थी जो अपना पक्ष मजबूती से नहीं रख पाई )
                                                   बहरहाल यह बहस,चिंतन और विमर्श का विषय हो सकता है कि हमारी न्यायिक व्यवस्था में अगर,वकील जेठमलानी,कपिल सिब्बल,हरीश साल्वे जैसे बेहद मासूम और भोले भाले मुवक्किल को पैसों के बल पर तथ्यों को तोड़ मरोड़कर अपने सलाखों से बचा ले जाने वाले होते हैं तो फिर इस व्यवस्था में वैसे जज क्यों नहीं हैं (इसे न्यायाधीशों की अवमानना ना समझा जाए ) जो इस तोड़ का काट निकाल कर दोषियों को वहां पहुंचाएं जहाँ उनकी जगह है |वरना ऐसे लोग फैसले आने के बाद बेशर्मी से मीडिया के सामने यह मुस्कुराते हुए कहते हैं कि मुझे न्यायपालिका पर विश्वास था और वो सही साबित हुआ |
                                                   दरअसल ऐसे लोगों का विश्वास न्यायपालिका पर नहीं वरन उसमें उनकी निहित हजारों खामियों में होता है,और दुर्भाग्यवश ऐसी खामियां सिर्फ बड़े लोगों के बड़े वकीलों को दिखती हैं | ये मासूम बड़े लोग बड़े गंभीर अपराधों को अंजाम देकर समाज में सर ऊँचा कर इज्जत की जिंदगी जीते हैं |
                                                                 ज्यादा अरसा नहीं हुआ जब वर्तमान मुख्य न्यायाधीश के पूर्ववर्ती टी एस ठाकुर कई मर्तबे रुंधे गले से मोदी जी से ये गुहार लगा रहे थे कि जजों की नियुक्ति पर कार्यपालिका कुंडली मारकर बैठी है | वो अमेरिका के जजों के बारे में बता रहे थे कि वहाँ एक जज साल में केवल 80 से 90 मुकदमों की सुनवाई करता है जबकि भारत में औसतन यह संख्या 2500 से 3000 के बीच होती है | और प्रत्येक जज भारी तनाव और दबाव में काम करता है | लेकिन क्या माई लार्ड से मैं यह जानने की जुर्रत कर सकता हूँ कि अगर अमेरिका वाली आदर्श स्थिति यहाँ भी हो जाए तो ऐसे फैसलों पर क्या और कितना असर पड़ेगा | संजय दत्त का नायाब उदाहरण भी देश के सामने हैं,इसी देश में जहाँ छोटे,गरीब गुरबे छोटे-मोटे अपराध में नियत समय से ज्यादा भी जेल में रहने को मजबूर होते हैं वहीँ संजय दत्त ऐसे गंभीर अपराध में बार-बार जन्म दिन से लेकर बीमारी के बहाने पैरोल पर रिहा होकर उस समाज को ठेंगा दिखाते हैं जिनके लिए ऐसा सोच पाना भी अपराध है |
                           सलमान का फैसला देर से आया सलमान के लिए दुरुस्त आया,वकीलों ने करोड़ों कमाए मीडिया ने टीआरपी बटोरी,लेकिन इस फैसले से क्या न्यायपालिका की  साख पर आंच नहीं आई ?  माई लार्ड दिन को रात और सर्दी को बरसात बताकर आखिर कब तक न्याय की देवी के आँखों पर बंधी पट्टी का बड़े लोगों द्वारा फायदा उठाया जाएगा | और आखिर कब तक गरीब,मजबूर,कमजोर ही न्याय के लिए मंदिर का घंटा बजाते रहेंगे और प्रसाद अमूमन,अमीर,मजबूत पाते रहेंगे ?
नोट - (इस लेख का उद्देश्य किसी भी अदालती फैसले से असहमति जताना या न्यायालय की अवमानना करना नहीं है | मैं केवल इतना चाहता हूँ इन फैसलों पर एक गंभीर और सार्थक बहस हो ताकि एक आम आदमी भी न्याय की देवी के कटघरे में उतना ही महफूज महसूस करे जितना एक अमीर आदमी करता है )
                              

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