Sunday 22 November 2015

मेरे घर की दीवारें

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बड़े शांत और सहज भाव से वो रोज मुझे कार्यालय के लिए विदा करती
और बड़ी शिद्दत से मेरे आने का करती वो इंतजार |
मेरी गैर मौजूदगी में मेरे घर की निगेहबानी करती,
वो मेरी तमाम अच्छी बुरी आदतों को देखते और सहते हुए खामोश रहती | 
हम एक दूसरे को उठते-बैठते खाते-सोते जी भर कर देखते |
मेरी पुतलियों की हरकतों से बेपरवाह
वो बड़ी बेशर्मी से एकटक मुझे घूरती रहती | 
मैं हँसता गुनगुनाता चीखता-चिल्लाता पर वो कभी React नहीं करती |
उसकी न तो कोई Demand थी न मेरी तरफ से कोई Supply.
वह मुझसे कभी शिकवे-शिकायत भी नहीं करती |
सर्दी गर्मी बरसात सबमें उसके भाव एक समान रहते |
अजीब सा रिश्ता था हमारे बीच शायद एक खामोश समर्पण |
मेरे अंदर ब्रह्मपुत्र वाली उफान देखकर भी
वो टेनिसन के सरिता की तरह शांत रहती |
वो मेरी सुःख दुःख की सच्ची साथी थी,
मेरी हमराज |
उसका मौन कभी-कभी मुझे बहुत Irritate करता,
पर शायद वही उसकी शक्ति थी
कुछ न कहते हुए भी बहुत कुछ बयां करना |
उसके अंदर कोई छल-प्रपंच नहीं था |
बिल्कुल निरी निपट दुनियादारी के शोर शराबे से बेखबर |
न ही उसके अंदर कोई काम वासना थी,
मुझे निर्वस्त्र देखकर भी उसका भाव वैसा ही निर्लिप्त रहता,
जैसा वस्त्र में देखकर |
उसे न तो अपने होने का कोई गुमान था
न कुछ खोने का डर |
बड़ी अजीब थी मेरे घर की दीवारें |
                                      

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