Wednesday 3 June 2015

नेट न्यूट्रीलिटी तो ठीक है पर नक्सलवाद का क्या ?

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करीब डेढ़ दो महीने पहले जब नेट न्यूट्रीलिटी पर मीडिया के तमाम प्रारूपों में चर्चा और बहस मुबाहिसों का दौर (चर्चा अब भी जारी है ) चरम पर था उसी बीच नक्सली हमले में अर्धसैनिक बलों सहित आमजन भी नक्सलियों की गोली का शिकार हो रहे थे| लेकिन ना तो मीडिया ना सत्ता पक्ष और विपक्ष और ना ही खुद को बौद्धिक कहलाने का दंभ भरने वालों के बीच इसे लेकर कोई बेचैनी दिखी |लगा जैसे ये रूटीन वर्क है | इन दो घटनाओं को लेकर जिस तरह की दोहरी प्रतिक्रियाओं और मानसिकता का प्रदर्शन देखने को मिला उससे मैं यह सोचने पर मजबूर हो गया कि क्या आधुनिक हो रहे भारत के सरोकार बदल रहे हैं ? क्या वैश्वीकरण की बयार में बह रहे देश में संवेदनाओं का वैश्वीकरण रुक गया है
                 यह सही है कि जब कोई मुद्दा युग सापेक्ष हो और उसके सरोकार भविष्य से जुड़े हों तो उसपर चिंतन और चर्चा लाजमी है |लेकिन जो मुद्दा समय के साथ-साथ विकराल होती जा रही हो मगर युग सापेक्ष ना हो तो उसका क्या किया जाए ? एयरटेल के जीरो प्लान के बाद नेट न्यूट्रीलिटी पर बहस छिड़ी तो यह मुद्दा कई दिनों तक ट्विटर पर ट्रेंड करता रहा |ऐसा लगा मानो देश का ही ट्रेंड बदल रहा हो | ट्राई को इस मसले पर करीब 12 लाख मेल प्राप्त हुए | इसपर सरकार ने भी तेजी दिखाई और आधुनिक युवा भारत को आश्वासन दिया कि सरकार बिना किसी पक्षपात के नेट की निष्पक्षता बरक़रार रखेगी
                                चलिए अच्छा है |अब जरा दूसरी तस्वीर देखिये | छत्तीसगढ़ के सुकमा में नक्सलियों के हाथों अर्धसैनिकों की निर्मम हत्या को नेताओं ने शहीदों की शहादत व्यर्थ नहीं जाएगी जैसे घिसे पिटे बयान देकर कर्तव्य की इतिश्री समझ ली | दस राज्यों के 83 जिलों के लाल गलियारे में सामानांतर सरकार चलाने वाले नक्सली जब जानवरों की तरह इंसानों की लाशें गिराते हैं तो हम आधुनिकता की आड़ में क्यों न्यूट्रीलिटी  की बहस में उलझ जाते हैं | या सत्ता के गलियारों में भी नक्सली हमलों पर तभी उबाल आता है जब लाशों की संख्या ज्यादा हो | लेकिन यह उबाल भी चिताओं के ठंडी होने से पहले ही ठंडा हो जाता है | ऐसा क्यों होता है कि नेट न्यूट्रालिटी जैसे मुद्दे जब ट्विटर पर ट्रेंड करते हैं तो सत्ता शीर्षासन करने लगती है पर नक्सलियों के हमले पर पारंपरिक श्रद्धा सुमन के बाद लोगों के सरोकार टेनिसन के सरिता की तरह बहने लगती है |जैसे कुछ हुआ ही ना हो
              क्या ऐसा इसलिए है कि जहाँ नेट न्यूट्रीलिटी मुद्दा है वो आधुनिक शहरी तबका है |वो इंटरनेट के सहारे खुद के साथ-साथ सत्ता के मत को भी बदलवा सकता है |वहीं दूसरी ओर नक्सलवाद से पीड़ित जिले ऐसे हैं जो अभी विकास की गोद में अठखेलियां खेल रहे हैं | वहां आधुनिकता अभी सिर्फ दरवाजे पर पहुंची है, उसका गृह प्रवेश नहीं हुआ है | सबसे बड़ी बात जिन जगहों पर या जिन लोगों के लिए नेट न्यूट्रालिटी जीवन मरण का प्रश्न है वो नक्सलवाद और उसके खतरे से कोसों दूर हैं | और जहाँ नक्सलवाद अपने समस्त अमानवीय भौतिक अवयवों के साथ मौजूद है वहां लोग नेट न्यूट्रालिटी के बारे में लगभग अंजान हैं | वरना कोई कारण नहीं कि पिछले पांच सालों में करीब 11000 से अधिक मौतों के बाद भी हम इस आंतरिक समस्या का समाधान नहीं खोज पाए हैं | हर नक्सली हमले के बाद नेताओं का घटनास्थल दौरा,मीडिया में एक दो दिन खबरें,आम जनता में थोड़ा सा उबाल ( वो भी बिल्कुल कायदे का ) बस फिर सब शांत | आधुनिक और सशक्त भारत के लिए नेट न्यूट्रीलिटी भले एक जरुरत हो सकती है लेकिन बिना नक्सलवाद जैसी पुरानी बीमारी का खात्मा किये हमें आधुनिक और बौद्धिक कहलाने का कोई हक़ है क्या ?

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