Sunday 5 April 2015

शिव की जटा से निकली, मैं अभागी गंगा बोल रही हूँ |

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शिव की जटा से निकली,भागीरथी के प्रयासों से इस धरती पर आई,
तुम मनुष्यों के पाप धोकर पतितपावनी कहलाई
मैं अभागी गंगा बोल रही हूँ |
ढूंढ़ती हूँ अपने अवशेषों पर पागलों की तरह अतीत की उफनती तरुणाई,
अफ़सोस हिमालय की तलछटीयों से लेकर बंगाल की खाड़ी तक
हर जगह निराशा दिखती है |
धर्म और कर्मकांडों के नाम पर तुमने जी भरकर मेरे साथ खिलवाड़ किया |
खुद की चिताओं को जलाकर तुम मेरी भी चिता जलाते रहे |
मेरी छाती को भेदकर तुमने उसपर बांध बनाया,
अपने घरों को रोशन किया,अपने खेतों को लहलहाया
पर मेरे आँगन में अँधेरा छा गया |
मैं चुप रही,सोचा कभी तो तुम्हारी भूख शांत होगी,
पर नहीं मैं शायद गलत थी
तुम्हारे अंदर तो कभी ना मिटने वाली भूख समाई हुई है |
तुम कभी मेरी देह को बनारस में छलनी करते तो कभी हरिद्वार में | 
तुम पापियों ने मुझे इतना मैला कर दिया है,
कि अब मेरी आँखों से दो बूंद स्वच्छ आंसू भी नहीं गिरते |
जरा देखो अगर तुम्हारी आँखों में पश्चाताप की बूंदें बची हैं तो,
खुद को आधुनिक कहने वाले मनुष्यो कि
जीवनदायिनी गंगा तिल-तिल कर मृत्यु की ओर अग्रसर है | 
पर मुझे कहीं तुम्हारे अंदर पश्चाताप नजर नहीं आता
सभ्यताओं के विलुप्तीकरण के साथ-साथ तुम मनुष्य भी असभ्य होते चले गए |
आज मेरी इस चीत्कार पर तुम आधुनिक मानव अट्टाहस लगा लो,
ये सोचकर कि जिसके किनारे ना जाने कितनी सभ्यताएं
पुष्पित पल्लवित होकर काल कलवित हुई,
जो तुम मनुष्यों को मोक्ष प्रदान करती थी आज तुमसे खुद मोक्ष की भीख मांग रही है |
पर आज मैं बहुत बेचैन हूँ,
मैं चाहती हूँ की तुम मनुष्यों के हाथों मेरा दाह संस्कार होने से पहले,
इतिहास के पन्नों में समाने से पहले ही
मैं वापस शिव की जटा में समा जाऊँ | 
भले ही मुझपर वहां कुछ बंदिशें होंगी और मैं वहां उन्मुक्त नहीं रहूंगी
पर तुम पापियों के बीच इस धरा पर रहकर मैं अब पतितपावनी से पतिता नहीं कहलाना चाहती |
हंस लो कुछ समय की बात है
तब ना तो तुम मुझे काशी के तट पर पाओगे
ना ऋषिकेश की उफनती धारा में |
शिव की जटा से निकली,
और उसी में समा जाने को व्याकुल मैं गंगा बोल रही हूँ 

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