Saturday 11 April 2015

विकास की अदालत और पेड़ों की अर्जी

0 comments
पहले हम झुंड में दिखा करते थे अब हमारी संख्या घटती जा रही है |
जंगल,गांव,क़स्बा,शहर हर जगह ये हमें आच्छादित करने पर तुले हैं |
Confuse हूँ और परेशान भी,कि कहाँ जाऊँ,किसे सुनाऊँ अपना हाले दिल |
इधर कुछ समय से उसकी चर्चा काफी बढ़ गई थी,
लोगों की जुबान से सुनता था कि वो दरियादिल है,
सबको समान भाव से देखता है | 
हमने सोचा उसी की अदालत में अपनी फरियाद सुनाऊँ |
पर वो कहाँ मिलेगा ?गांवों में,शहरों में,महानगरों में,आखिर कहाँ ?
पहले हमने उसे गांव की पगडंडियों में तलाशा,
पर नतीजा सिफर,
फिर किसी ने बताया वो शहरों में मिलेगा
लेकिन उसकी सबसे बड़ी अदालत महानगरों में बैठती है,
गगनचुंबी अट्टालिकाओं,नियोन की लाइटों में अधनंगी मॉडलों के होर्डिंग्स के बीच | 
मैं चल पड़ा अपने बचे खुचे कुनबे के साथ उसकी अदालत में फरियाद करने |
हमारे छोटे मोटे साथियों ने तो रस्ते में ही दम तोड़ दिया |
कुछ हाईवे पर रौंदे गए तो कुछ फ्लाईओवर पार करते हुए काल कलवित हो गए |
खैर हम आख़िरकार उसकी अदालत में पहुँच ही गए |
इधर उधर नजर दौड़ाई तो बड़ा ही विहंगम दृश्य दिखा,
जिसने आधुनिक मनुष्य की आँखों पर मनोहरी पर्दा डाल दिया था | 
हम उस अदालत को समझने की कोशिश कर ही रहे थे,
तभी एक अट्टाहस सुनाई दिया,
रे मुर्ख,ये गगनचुंबी इमारतें,ये फ्लाईओवर,शॉपिंग माल्स,ये सब हमारे ही तो प्रतिरूप हैं |
अमीरी हमारी ब्रांड एम्बेसडर है | गरीबी से हम कोई ताल्लुक रखते नहीं | 
हमें नफरत है पर्यावरण और उसके तुम जैसे अनुचरों से |
और इस तरह विकास की अदालत में हम पेड़ों की अर्जी वहीँ ख़ारिज हो गई |
मतलब साफ़ था कि अब विकास तो होगा पर हमारा नहीं | 

No comments:

Post a Comment