Friday 3 April 2015

ज़िंदगी के कारवां में,मैं खर्च होता चला गया

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सोचता हूँ कभी-कभी,
की क्या बदला है
मेरी ज़िंदगी में तुम्हारी दस्तक से |
कोशिश करता हूँ मूल्यांकन करूँ,
पर संबंधों का गणित
मानसिक रूप से उलझाए रखता है |
पर मैं तुम्हें क्यों दोष दूँ
इस उलझन के लिए,
क्योंकि जबसे संभाला है होश मैंने
तबसे मूल्यांकित ही हो रहा हूँ |
कभी संबंधों ने मूल्यांकन किया
तो कभी किस्मत ने |
दुनिया तो बहुत देखी मैंने
पर ज्यादा दुनियादारी नहीं सीख पाया,
व्यापारी भी नहीं हूँ
इसलिए रिश्तों का सौदा भी नहीं कर पाया |
ज़िंदगी के कारवां में
लोग मुझे खर्च करते चले गए |
तकलीफ नहीं होती थी मुझे खर्च होने में,
उम्मीद थी कि इस खर्च की कमी महसूस नहीं होगी |
खैर फिर ये सोचता हूँ
कि क्या बदला है मेरी जिंदगी में तुम्हारी दस्तक से |
नींद तो अभी भी  उतनी ही आती है,
बस करवटों ने अपनी संख्या बढ़ा ली है |
बीते वक्त के साथ मैं कितना खर्च हुआ पता नहीं |
अब खर्च के दलदल से निकलना चाहता हूँ |
थाम लो मेरा हाथ
मुक्त कर दो मुझे मूल्यांकन के बही-खाते से |
अब तो कमबख्त दीवारें भी
मेरा मूल्यांकन करने लगी हैं,
कि तुम्हारी इस उम्र का जमा हासिल क्या है ?
मैं तो अब भी निरुत्तर हूँ,
तुम्हारे पास कोई जवाब हो तो बता दो | 

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