Saturday 11 January 2014

बदलता शहर

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बदलता शहर

माचिस के डब्बे सी जगह को घर कहते हैं
जहाँ रात को नींद ना आए उसे शहर कहते हैं,
इंसान ने धरा है जहाँ मशीनों का रूप
भावनाओं की जहाँ नहीं होती कोई पूछ। 
हर जगह दिखेगा जहाँ पाश्चात्य का रंग
मैकडोनल ने जहाँ छीना है कुल्हड़ का संग। 
गगनचुंबी इमारतें और पाताल लोक की तरफ जाता मन
सपनों के बोझ तले जहाँ छीना जा रहा बच्चों का बचपन। 
नीम का पेड़ जहाँ अब दिवास्वप्न लगता है
संयुक्त परिवार तो सिर्फ बुद्धू बक्से में दिखता है। 
माँ यहाँ अब मोम हो गई हैं
संवेदना जहाँ मौन हो गई हैं। 
नियॉन की रोशनी में दीखता जहाँ मॉडलों का अधनंगा शरीर
नोटों की ढेर पर बैठा इंसान भी है यहाँ मन से फ़क़ीर ।
दिखाते हैं जोड़े यहाँ अपने संबंधों को ऐसे
जैसे हों वो राँझा और हीर । 

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