Thursday 24 October 2013

मैं हिंदी हूँ

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मैं हिंदी हूँ 

हर रोज मैं देखता उसे,
वो सकुचाई सहमी सी पड़ी रहती,
वो सबको देखती,
पर उसे शायद ही कोई देखता,
पर हाँ वर्ष में एक दिन,
हर कोई उसकी तरफ देखता,
उसके साथ जीने मरने की कसमें खाता,
वर्ष में एक दिन का अपनापन,
फिर अगले साल तक का रूखापन ?
अरसा बीत गया था उसे देखते-देखते
एक दिन मेरे सब्र का बांध टुटा,
और मैं उसके पास जाकर पूछ बैठा,
कौन हो तुम ?


क्यूँ खामोश सी पड़ी रहती हो यहाँ,
मेरे सवालों ने जैसे उसे नींद से जगाया,
और वो बमुश्किल बोल पाई,
मैं हिंदी हूँ ,
वर्तमान मुझे बहुत कष्ट दे रहा,
भविष्य मुझे अंधकारमय दिख रहा,
अतीत के अच्छे,बुरे पल याद करने की हिम्मत मुझमें नहीं ,
दक्षिण को मेरी जरुरत नहीं,
पश्चिम मुझे चाहता नहीं,
पूरब मुझे अपनाता नहीं,
अब तो उत्तर भी बेरुखी दिखाता |
न्याय के मंदिर में तो कोई मेरा नाम तक नहीं जानते,
और युवा पीढ़ी तो मुझे बिल्कुल नहीं पहचानते,
शहर में मेरी क़द्र नहीं,
अब तो गाँव भी मुझसे आँखे चुराता है,
जिसे देखो वो अंग्रेजी की तरफ भागा जाता है,
किससे कहूँ ,
किस पर निकालूँ ,
अपने मन की गुबार,
अब नहीं सहा जाता,
अपने ही घर में सौतेला व्यवहार,
उसके जवाबों से हैरान परेशान ,
मैं सोचने लगा,
कहीं मैं भी तो नहीं हूँ,
उसका गुनहगार



1 comment:

  1. आज “हिन्दी दिवस” जैसा दिन मात्र एक औपचारिकता बन कर रह गया है. लगता है जैसे लोग गुम हो चुकी अपनी मातृभाषा के प्रति श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं

    आज जब युवा पढ़ाई पूरी करके इंटरव्यू में जाते हैं तो अकसर उनसे एक ही सवाल किया जाता है कि क्या आपको अंग्रेजी आती है? बहुत कम जगह हैं जहां लोग हिन्दी के ज्ञान की बात करते हैं.

    सरकार को यह समझने की जरूरत है हिन्दी भाषा सबको आपस में जोड़ने वाली भाषा है तथा इसका प्रयोग करना हमारा संवैधानिक एवं नैतिक दायित्व भी है. अगर आज हमने हिन्दी को उपेक्षित करना शुरू किया तो कहीं एक दिन ऐसा ना हो कि इसका वजूद ही खत्म हो जाए. समाज में इस बदलाव की जरूरत सर्वप्रथम स्कूलों और शैक्षिक संस्थानों से होनी चाहिए. साथ ही देश की संसद को भी मात्र हिन्दी पखवाड़े में मातृभाषा का सम्मान नहीं बल्कि हर दिन इसे ही व्यवहारिक और कार्यालय की भाषा बनानी चाहिए.

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